कभी खुशी कभी मातम ,है प्रमाण आस का
अहसास न देखता पद, आम और खास का
कभी एक बूंद काफ़ी, कभी समंदर भी कम
कोई पैमाना नही है ,मनुष्य की प्यास का
मिलता नही जिगरे सिंह,औढ़ लो चाहे खाल
भूलना औकात अपनी,कारण बने उपहास का
खुद को गर न खोज सके,तुम अपनी उम्र भर
फायदा क्या है भला,बता तेरी ऐसी तलाश का
स्वप्न गढ़े पीढीयों के ,कल का न भरोसा कुछ
जाने कब टूट जाये, बंधन तन से सांस का
जिसने सहा वही रहा , मूल यही है संसार का
ज्येष्ठ की तपिश मे खिले,फूल ज्यों पलाश का
रिश्तो को रखना हरा, सींच के प्रेम नीर से
ॠतु की अना से पड़ता, पीला रंग घास का
कानों मे रस घोलने , मिटा देता खुद को
छेद पाकर सीने मे , इक तुकड़ा बांस का
न खीँच डोर संबंधों की, अपने अभिमान से
टूटे न धागा सुरेश, प्रेम और विश्वास का
सुरेश राय 'सरल'
(चित्र गूगल से साभार )